चरित्र
टेपचू को हमारी व्यवस्था सह नहीं पाती और उसे गोली मार दी जाती है । टेपचू की हत्या अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की वीरगति की याद दिलाने वाली है। तब तो अंग्रेजों की सरकार थी भला कोई क्रान्तिकारी कैसे न मारा जाता? लेकिन अब तो भारत आज़ाद है। सरकार हमारी है।हमने ही इस सरकार को चुना है फ़िर आदिवासियों को नकसली कहने वाले और उनकी जमीनों पर कब्जा करने वाले लोग कहां से आ गए? दाढी-टोपी वाला हर आदमी आतंकवादी कैसे माना जाना लगा? अमरीकी लोग भले न जानते होंगे लेकिन हमारे देश में तो हल्दीघाटी का युद्ध हो या 1857 का संग्राम –मुसलमानों और आदिवासियों ने हमेशा अन्याय का मुकाबला मिलकर किया है। फ़िर? फ़िर भी टेपचू को मारना क्यों जरूरी है? कारण यही है कि ये टेपचू जैसे ही लोग हैं जो बगावत करते हैं। सवाल खड़े करते हैं और इनका मिजाज तो देखिये-‘उसकी हंसी के पीछे घ्रणा, वितष्णा और गुस्से का विशाल समन्दर पछाड़ें मार रहा था। उसकी छाती उघड़ी हुईथी। कुर्ते के बटन टूटे हुए थे। कारखाने के विशालकाय फ़ाटक की तरह खुले हुए कुर्ते के गले के भीतर उसकी छाती केबाल हिल रहे थे,असंख्य मजदूरों की तरह,कारखाने के मेन गेट पर बैठे हुए।’
टेपचू का चरित्र भारतीय जन सामान्य की विशेषताएं लिए है जिसके लिए बाबा नागार्जुन ने लिखा था-‘वह जन मारे नहींमरेगा। नहीं मरेगा।’ यह वह जनता है है जो लाख दमन,अन्याय और भूख के बावजूद अपना अस्तित्व बचाए हुए है। टेपचू इस जनता का प्रतीक है। टेपचू के बचपन का संघर्ष हिन्दी कहानी के एक अन्य यादगार चरित्र की याद दिलाता है प्रेमचन्द की कहानी ‘ईदगाह’ का हामिद टेपचू की कहानी पढते हुए याद आता है। हामिद आजादी से पहले के गुलाम भारत मे अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदने के जतन में लगा हुआ था ताकि उसके हाथ रोटियां सेकते हुए जले नहीं। टेपचू आजाद भारत मे पैदा हुआ है तक तक देश की जनता दूसरी आजादी के नारे और जुलूस देख चुकी थी। यह वह टेपचू है जो अपना पेट भरने का उद्यम जानता है, संगठित होने का मह्त्त्व समझ चुका है और आपकी आंखों में आंखें डाल सकता है।
कहानी के अन्त में जब पोस्टमार्टम के लिए टेपचू की लाश को लाया गया है तब उसका आंख खोलकर कहना - ‘डाक्टरसाहब,ये सारी गोलियां निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।’ भारतीय जन की इसी अपराजेय शक्ति का संकेत है जिसे कोई मार नहीं सकता। कथाकार भी अंत मे लिखते हैं –‘आपको अब भी विश्वास नहोता हो तो जहां, जब, जिस वक्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं।’ युवा आलोचक संजीव कुमार इस बात को खोला है- ‘इसका मतलब, आखिरी हिस्से में टेपचू व्यक्ति न रहकर हमारे आसपास हर समय मौजूद श्रमजीवी वर्गबन जाता है, निहायत प्रतिकूल परिस्थितियों में जिसके लगातार जीवित रह जाने की विस्मयकारी परिघटना पर हमविचार नहीं करते, क्योंकि उन्हें इसी हाल में देखते रहने की भयावह अभ्यस्तता ने हमें चकित-विस्मित और इसलिएविचारशील होने से रोक रखा है।’
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