भाषा और शिल्प
कहानी का शिल्प और कथ्य मिजाज भी प्रगतिशील कहानियों से बदला हुआ है। न मजदूरों-गरीबों का महिमा-मण्डन और न ही अमीरों के खिलाफ़ नारेबाजी। इस कहानी में जादुई यथार्थवाद की तकनीक अपनाई गई है। अर्थात कहानी में यथार्थ तो हो लेकिन उसे रोचक बनाने के लिए अविश्वसनीय बातें भी आ जाएं तो कोई बात नहीं। आलोचक चंचल चौहान ने लिखा है- ‘शिल्प की दष्टि से भी टेपचू एक अद्भुत कहानी है। एक सफ़ल रचना कला के तीन क्षणों से गुजरती है। यह कहानी भी यथार्थ को पहले एक बिम्ब में बदलती है, दूसरे क्षण में यह मेटाफ़र बन जाता है और तीसरे क्षण में मेटाफ़र प्रतीक और मिथक के रूप में विकसित हो जाता है। कला की यह परिपूर्णता बहुत कम रचनाओं में आ पाती है।‘विजन’ के स्तर तक जो रचना पहुंच जाए उसके शिल्प को अद्भुत नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। इस कहानी ने जादुई यथार्थवाद की पद्धति का ऐसा सुन्दर इस्तेमाल किया है कि वास्तविकता को क्षति भी नहीं पहुंचती और वह हैरतअंगेज भी लगती है। इसलिए शिल्प के स्तर पर भी टेपचू अपने से पूर्व की कहानियों की फ़ार्मूलाबद्धता से अलग है।’ शिल्प का ऐसा अनूठा प्रयोग कि पाठक रचना से सहज तादात्म्य स्थापित कर ले कम ही हो पाता है। अपनी पुस्तक ‘ईश्वर की आंख’ में एक जगह उदय प्रकाश ने लिखा है- ‘टेपचू जब 1980 में प्रकाशित हुई थी तो लगभग तीन सौ पत्र आये थे जिनमें से एक पत्र रांची के किसी मोटर वर्कशाप में काम करने वाले उस नौजवान सिख का भी था, जिसने लिखा था कि अगर यह कहानी उसने अचानक न पढ ली होती तो अगले दिन वह आत्महत्या कर लेता।’
वस्तुत: कहानी चौंकाने से अधिक पाठक को विचारवान बनाती है और इसके लिए उदय प्रकाश पारम्परिक कहन विधि से भिन्न मार्ग अपनाते है। एक मामूली बच्चे का आदमी बनना और इससे आगे जाकर उसकी प्रबल जिजीविषा उसे एक बहुत बड़े वर्ग से जोड़ देता है। कहानी में गोली खाकर भी टेपचू का न मरना जादुई यथार्थवाद से प्रभावित एक कथा युक्ति भले हो लेकिन इसका सन्देश गहरा है। यहां पूछा जा सकता है कि जादुई यथार्थवाद ही क्यों? आलोचक अरुण माहेश्वरी ने लिखा है- ‘समय के सीधे विकास और वर्तुल प्रवाह के बीच की अंतर्क्रिया का संज्ञान उस जादुई यथार्थवाद सेही मुमकिन है जो क्रमबद्ध और बिना किसी क्रम के काल-प्रवाह के बीच नाना प्रकार के संयोजनों और टकराहटों कोव्यक्त करता है। वर्तमान और सम्भावनाओं से संपक्त यथार्थ दष्टि सिर्फ़ एक जटिल वर्तमान को उद्घाटित ही नहींकरती है, स्वयं उस जटिलता से निर्मित होती है तथा सच्चाई को देखने का एक नया नजरिया प्रदान करती है।’ (हंस ; अर्धशती विशेषांक: खण्ड 1, अगस्त-सितम्बर 1997, पेज 7) कहना न होगा कि पैंतीस साल पुरानी कहानी होने पर भी इसका लगातार पढे जाने का कारण इसके गम्भीर कथ्य के साथ इसके श्रेष्ठ कथा शिल्प में भी देखा जाना चाहिए।
उनकी कहानियों के सम्बन्ध में कवि-कथाकार प्रियदर्शन ने सर्वथा उचित लिखा है कि ‘दरअसल उदय प्रकाश जीवन केब्योरों को बहुत करीब से देखते हैं और उनके भीतर के विद्रूप और उसकी त्रासदी को पकड़ते हैं। जीवन से संग्राम करतेउनके पात्र अक्सर ऐसी विडम्बनाओं से घिर जाते हैं जो उनका बहुत सख्त इम्तिहान लेती हैं-वे विक्षिप्त हो जाते हैं, वेमारे जाते हैं, वे खो जाते हैं।’ जीवन की विडम्बनाओं को देखना और उनसे सार्थक रचनाएं पैदा करने का कौशल हर रचनाकार को नसीब नहीं होता। उदय प्रकाश ऐसा कर सके हैं तो इसका कारण उनकी गहन सम्वेदनशीलता और विचारधारा है। यह वह विचारधारा है जो नारा न लगाए किन्तु शोषण, गरीबी और भूख के विरुद्ध कथाकार को खड़ा हो जाने के लिए बाध्य कर देती है।
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