पाठ विश्लेषण और कथा तत्त्व
उदय प्रकाश की कहानी ‘टेपचू’ का पहला प्रकाशन 1980 में हुआ था। यह उदय प्रकाश के पहले कहानी संग्रह ‘दरियाई घोड़ा’ में संकलित है जिसका प्रकाशन 1980 में हुआ था। लगभग पैंतीस साल पुरानी इस कहानी को इधर पढना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में मनुष्य की जय यात्रा का हिस्सा होने का अनुभव है। उदय प्रकाश कहानी को सीधे मुख्य पात्र टेपचू से शुरू करने के बजाय उसके पिता अब्दुल्ला बक्स उर्फ़ अब्बी से प्ररम्भ करते हैं जो मनमौजी, रंगीला और स्वप्नदर्शी था। हिन्दी गद्य में इस जोड़ के एक और पिता को पाठक नहीं भूल सकते जो मनोहर श्याम जोशी के अमर उपन्यास ‘कसप’ में डी डी के पिता के रूप में प्रकट हुए थे। वे उड़ने का जदू करना चाहते थे –कर नहीं सके और टेपचू के पिता अब्बी भी बाढ भरी नदी में नाचने का जादू करते हुए नदी में ऐसे बिला जाते हैं कि फ़िर कभी नहीं मिलते। अब्बी की पत्नी फ़िरोज़ा किसी तरह टेपचू को पाल पोसकर बड़ा करती है ।यह और बात है कि टेपचू ‘इतना घिनौना था कि फ़िरोज़ा की जवानी पर गोबर की तरह लिथड़ा हुआ लगता था। पतले-पतले सूखे हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फ़ूला हुआ पेट, फ़ोड़ों से भरा हुआ शरीर। लोग टेपचू के मरने का इन्तज़ार करते रहे।’ टेपचू मरता नहीं है बल्कि जीने के लिए ऐसे ऐसे उपक्रम रचता कि लोगों को विश्वास हो गया कि हो न हो टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर ही नहीं सकता। टेपचू भूख को परास्त करने के लिए तालाब मे कमल गट्टे तोड़ने गहरे पानी में उतर सकता है,मां के स्वास्थ्य के लिए बूतहा बगीचे में आधी रात कच्ची अमिया तोड़ने जा सकता है और अलौकिक स्वादा की आकांक्षा भी उसमें मौजूद है। इसके लिए ताड़ी के आसमान टंगे मटके तक पहुंचने का जोखिम वह उठाता है भले लट्ठबाज मदना सिंह का पहरा हो, भले मटके में फ़नियल करैत हो और चाहे इसके बाद उसे गीध की तरह हवा में उड़ना पड़े।
जिजीविषा की अद्भुत ललक टेपचू को न केवल जिन्दा रखती है बल्कि उसे समय के साथ ‘भरपूर आदमी’ बना देती है। कहानी में उदय प्रकाश ने लिखा है- ‘पसीने, मेहनत, भूख,अपमान,दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकरवह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने,टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।’ टेपचू एक कारखाने में काम करने लगता है और अपने हक़ के लिए लड़ना सीख गया है। हां,हक़ के लिए लड़ना उसे बचपन से आता था लेकिन अकेले लड़ने के कारण वह हर बार पिटा और हारा था। अकारण नहीं कि उसे पिटने से सख्त नफ़रत थी। वह कथावाचक से कारखाने के नये हालात पर दो टूक कहता है- ‘दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बनाकर ढोरों की माफ़िक हांक देना कोइहंसी-ठट्ठा नहीं है। छंटनी ऊपर की तरफ़ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो,निकालो सबसे पहलेउसे,छांटो अजमानी साहब को पहले।’ टेपचू अपने कारखाने के मजदूरों के हितों के लिए लड़ता है और पुलिस उसे उठा ले जाती है,जीप के पीछे रस्सी से बांधकर डेढ मील तक उसे घसीटा जाता है। लाल टमाटर की तरह उसका गोश्त जगह जगह से झांक रहा है तभी जीप रोककर उसे जिलाबदर होने का हुक्म दिया जाता है। कोइ कसर न रह गई हो इसके लिए दोनों कन्धों के पास बन्दूक की नाल सटाकर फ़िर गोलियां मारी जाती
उदय प्रकाश की कहानी ‘टेपचू’ का पहला प्रकाशन 1980 में हुआ था। यह उदय प्रकाश के पहले कहानी संग्रह ‘दरियाई घोड़ा’ में संकलित है जिसका प्रकाशन 1980 में हुआ था। लगभग पैंतीस साल पुरानी इस कहानी को इधर पढना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में मनुष्य की जय यात्रा का हिस्सा होने का अनुभव है। उदय प्रकाश कहानी को सीधे मुख्य पात्र टेपचू से शुरू करने के बजाय उसके पिता अब्दुल्ला बक्स उर्फ़ अब्बी से प्ररम्भ करते हैं जो मनमौजी, रंगीला और स्वप्नदर्शी था। हिन्दी गद्य में इस जोड़ के एक और पिता को पाठक नहीं भूल सकते जो मनोहर श्याम जोशी के अमर उपन्यास ‘कसप’ में डी डी के पिता के रूप में प्रकट हुए थे। वे उड़ने का जदू करना चाहते थे –कर नहीं सके और टेपचू के पिता अब्बी भी बाढ भरी नदी में नाचने का जादू करते हुए नदी में ऐसे बिला जाते हैं कि फ़िर कभी नहीं मिलते। अब्बी की पत्नी फ़िरोज़ा किसी तरह टेपचू को पाल पोसकर बड़ा करती है ।यह और बात है कि टेपचू ‘इतना घिनौना था कि फ़िरोज़ा की जवानी पर गोबर की तरह लिथड़ा हुआ लगता था। पतले-पतले सूखे हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फ़ूला हुआ पेट, फ़ोड़ों से भरा हुआ शरीर। लोग टेपचू के मरने का इन्तज़ार करते रहे।’ टेपचू मरता नहीं है बल्कि जीने के लिए ऐसे ऐसे उपक्रम रचता कि लोगों को विश्वास हो गया कि हो न हो टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर ही नहीं सकता। टेपचू भूख को परास्त करने के लिए तालाब मे कमल गट्टे तोड़ने गहरे पानी में उतर सकता है,मां के स्वास्थ्य के लिए बूतहा बगीचे में आधी रात कच्ची अमिया तोड़ने जा सकता है और अलौकिक स्वादा की आकांक्षा भी उसमें मौजूद है। इसके लिए ताड़ी के आसमान टंगे मटके तक पहुंचने का जोखिम वह उठाता है भले लट्ठबाज मदना सिंह का पहरा हो, भले मटके में फ़नियल करैत हो और चाहे इसके बाद उसे गीध की तरह हवा में उड़ना पड़े।
जिजीविषा की अद्भुत ललक टेपचू को न केवल जिन्दा रखती है बल्कि उसे समय के साथ ‘भरपूर आदमी’ बना देती है। कहानी में उदय प्रकाश ने लिखा है- ‘पसीने, मेहनत, भूख,अपमान,दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकरवह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने,टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।’ टेपचू एक कारखाने में काम करने लगता है और अपने हक़ के लिए लड़ना सीख गया है। हां,हक़ के लिए लड़ना उसे बचपन से आता था लेकिन अकेले लड़ने के कारण वह हर बार पिटा और हारा था। अकारण नहीं कि उसे पिटने से सख्त नफ़रत थी। वह कथावाचक से कारखाने के नये हालात पर दो टूक कहता है- ‘दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बनाकर ढोरों की माफ़िक हांक देना कोइहंसी-ठट्ठा नहीं है। छंटनी ऊपर की तरफ़ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो,निकालो सबसे पहलेउसे,छांटो अजमानी साहब को पहले।’ टेपचू अपने कारखाने के मजदूरों के हितों के लिए लड़ता है और पुलिस उसे उठा ले जाती है,जीप के पीछे रस्सी से बांधकर डेढ मील तक उसे घसीटा जाता है। लाल टमाटर की तरह उसका गोश्त जगह जगह से झांक रहा है तभी जीप रोककर उसे जिलाबदर होने का हुक्म दिया जाता है। कोइ कसर न रह गई हो इसके लिए दोनों कन्धों के पास बन्दूक की नाल सटाकर फ़िर गोलियां मारी जाती
क्या आप जानते हैं?
|
कहानी के पुराने और क्लासिक समझे गये तत्त्वों के आधार पर ‘टेपचू’ की व्याख्या सम्भव नहीं है, क्योंकि जहांयह हमारी जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि को झटका देती है वहीं वाचक की उपस्थिति लगातार कहानी को प्रवाहमानबनाए रखती है। इसमें संवाद, पात्र और घटनाएं बहुत अधिक नहीं हैं लेकिन प्रभाव की दष्टि से कहानी अनुपम है।
आख्यान की यह भारतीय शैली ही है जादुई यथार्थवाद का मुहावरा भले हमें चौंकाता हो लेकिन क्या हमारी लोककथाओं में चिड़िया नहीं बोलती? पेड़ रास्ता नहीं दिखाते? देवताओं के आशीष से मरे राजकुमार जीवित नहीं हो उठते? शक्तिशाली लोगों का मामूली लोग मजाक नहीं उड़ाते? खुद उदय प्रकाश ने कहा है- ‘जिस जादुई यथार्थवाद को हिन्दीकी कहानी में लाने का अभियोग मेरे ऊपर कुछ आलोचकों द्वारा लगाया गया, उसका आधार यह था कि जैसे यह कोईविदेशी शैली है। नैंने तब भी कहा था और आज भी इसे दुहरा रहा हूं कि इसके पीछे स्वयं हिन्दी आलोचना का मस्तिष्ककाम कर रहा था जो अभी तक अपने औपनिवेशिक अतीत से मुक्त नहीं हो पाया है।
www.vishalindiantvchainal.blogspot.com
|
Comments
Post a Comment