कभी नहीं सुनी होगी गांधी की जिंदगी ये सबसे रोचक घटना, ऐसे बन गया वह ''लड़का'' महात्‍मा गांधी..!

गांधी के बचपन की ऐसी कई घटनाएं हैं, जिनका वर्णन उन्‍होंने अपनी गुजराती में लिखी आत्‍मकथा ''सत्‍य के प्रयोग'' में किया है। यह आत्‍मकथा बताती है, कि कैसे गांधी जी के बचपन की घटनाओं ने उनके व्‍यक्‍तित्‍व को प्रभावित किया और उनके भीतर के नैतिक शिक्षा में रचे-बसे संस्‍कारित मन ने उसे अपने व्‍यक्‍तित्‍व का विराट हिस्‍सा बना लिया।
बहुत कम लोग जानते हैं कि गांधी जी के व्‍यक्‍तित्‍व की सबसे महत्‍वपूर्ण बात थी उनके सत्‍य के प्रति आग्रह यानी की सत्‍य के प्रति तन, मन और वाणी के साथ निष्‍ठा और उसे जीवन में उतारना। दरअसल इसी सत्‍य ने गांधी जी के भीतर ने जब आकार लेना शुरू किया तो, उन्‍हें महामानव बना दिया।
गांधी जी ने ऐसी ही एक घटना का जिक्र अपनी आत्‍मकथा सत्‍य के प्रयोग में किया है। यही वह घटना थी, जिसने सत्‍य के प्रति गांधी के लगाव को विराट रूप दे दिया और एक सामान्‍य परिवार के बेहद साधारण लड़के को महात्‍मा गांधी बना दिया।
दरअसल यह घटना गांधी के पोरबंदर में रहते हुए तब घटी जब वे स्‍कूली छात्र थे।
वे अपनी आत्‍मकथा में लिखते हैं -:
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की, परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर जाइल्स विद्यालय की निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पांच शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द 'केटल' (kettle) था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पास वाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिशचन्द का आख्यान था। उस बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यों बारबार जाने कौन देता ? पर अपने मन में मैने उस नाटक को सैकड़ो बार खेला होगा।
हरिशचन्द की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते ? यह धुन बनी रहती। हरिशचन्द पर जैसी विपत्तियां पड़ी वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिशचन्द पर पड़ी होगी। हरिशचन्द के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिशचन्द कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिशचन्द और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।
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