वो (दो) जिन्दगी 

भाग एक  –
धरती बिछाए आसमान ओढे
बैठी वो जिन्दगी
उघड़े बदन से
सिहर सिहर कर
ठिठुर ठिठुर कर
काँपती वो जिन्दगी,ड़री सी सहमी सी
घुप्प अंधेरों घनी रातों में
बिल्डिंगों के उजाले
ताकती वो जिन्दगी,रो फूटकर टूट टूट कर
खामोश और मायूस होकर
बदतर सी जिन्दगी से
सुनहरी सी जिन्दगी मे
झाँकती वो जिन्दगी,
लड़ते लड़ाते बचते बचाते
सपने बनाते और फिर मिटाते
गिर कर टूटकर
मुकद्दर से हारकर
जिन्दगी के अन्त को
माँगती वो जिन्दगी ,
जिन्दगी को ज़िन्दगी
बनाने की कोशिश में
एक नई जिंदगी को जन्म देकर
इंसानियत की हैवानियत से हारकर
जिन्दगी संवारने की कोशिश छोड़कर
एक और जिन्दगी का बोझ
संभालती वो जिन्दगी
फिर भी हँसी से
फिर भी खुशी से
अपनी ही जिन्दगी को
पालती वो जिन्दगी ।
                 भाग दो –
जिन्दगी के जन्म से ही
आराम और विलासिताएँ
सुख और सुविधाएँ
पा रही वो जिन्दगी
फिर भी जिन्दगी से
शिकायतें करती वो जिन्दगी ,जिन्दगी की सच्चाई से
कई गुना दूर वो जिन्दगी
गाड़ियों में ए सी(AC) में
बंगलों में जहाज़ो में बैठ
सड़को वाली जिंदगी को
गालियाँ देती
लात मारती वो जिदंगी,जिन्दगी के सुकून से दूर
बड़े घरों में अकेले रहती
लफ्जों में खोखलापन
और हँसी में मायूसी चमकती
ऐसी जिन्दगी पे
इतराती वो जिन्दगी
जिन्दगी के असल मायने
नही जानती वो जिनदगी।

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