वक़्त तो लगता है
वक़्त तो लगता है”
किस्से तो कई सुने हैं
कलम की आवाज़ के..
इन्हें लफ़्ज़ों में उतारने में
वक़्त तो लगता है।
धूप -छाँव के खेल में
रौशनी गुमनाम हो जाती है..
जुगनुओं को पकड़ने में
वक़्त तो लगता है।
कांच के टुकड़ों पर चलके
नाज़ुक कदम ज़ख़्मी हो जाते हैं..
वक़्त तो लगता है।
फिर आईने से मुखातिब होने में
जब पाते हैं खुद को अकेला,
आँखें भर-सी जाती हैं..
बहती नदियों को सुखाने में
वक़्त तो लगता है।
अपनों के शहर में पनाह ढूँढते
जब कभी पैर लड़खड़ा जाते हैं..
गिर के फिर संभलने में
वक़्त तो लगता है।
तूफानों से टकरा कर
पंछी के पर कट जाते हैं..
फिर ऊँची उड़ान भरने में
वक़्त तो लगता है।
घरौंदे उजड़ जाने के बाद
सन्नाटे पसर जाते हैं..
इन खामोशियों को समझने में
वक़्त तो लगता है।
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