आशा और निराशा के बीच

आशा और निराशा के बीच
एक बहुत महीन रेखा है
कुछ समय हमने संभल
उस पर चलकर देखा है
रास्ता जटिल था,
गहरा ऊँचा संकरा भी,
चलना कठिन था, हमने
कोशिशों से खुद को पकड़ा भी,
हम कभी डगमगाये, ठहरे, थके
और गिर भी पड़े
पर संभलना था,
गिर-गिर फिर उठते चले
अब आज उस अतुल श्रम का प्रतिफल
हमने ये पाया है
कि खुद उस व्योम का स्वर्ग इस धरा पर
हमारे लिए उतर आया है
जब आशा ही नहीं
तो निराशा का प्रश्न क्या
और बिना निराशा
कोई नया जश्न क्या?

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