समर्पित
सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती मंगलवार को है। पर, आगरा की भूमिका सिर्फ उनकी प्रतिमा और चित्रों पर माल्यार्पण करने तक सीमित नहीं है। रानी का पराक्रम और घटनाक्रम देखने वाली जुबां भले ही खामोश हो चुकी हैं, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटते ही मुहब्बत की नगरी से वीरांगना के तार मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ऐसे में एक ताजा घटनाक्रम ने आगरा के इतिहासविद् और प्रबुद्धजनों को थोड़ा बेचैन कर दिया है। मुंबई हाईकोर्ट में विवेक तांबे नाम के एक विधि छात्र ने कुछ माह पहले याचिका दायर की थी। खुद को झांसी की रानी के चचेरे भाई अनंत तांबे की पांचवीं पीढ़ी का बताने वाले विवेक ने याचिका में रानी लक्ष्मीबाई के कुलनाम सहित कई बिंदुओं को याचिका में शामिल किया है, लेकिन बखेड़ा मचा है एक तस्वीर पर।
विवेक ने एक किताब में छपे रानी लक्ष्मीबाई के स्केच पर आपत्ति जताई है। इसमें वीरांगना को हुक्का पीते हुए दिखाया गया है। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह स्वतंत्रता संग्राम की तलवार उठाने वाली थीं, हुक्का-पान जैसे काल्पनिक चित्र रानी की छवि को खराब करने वाले हैं। यह उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते। हालांकि मुंबई हाईकोर्ट के जज वीएम कनाडे और जस्टिस केआर श्रीराम ने सुनवाई करते हुए कह दिया कि यह याचिका पीआइएल की तरह है और इसकी सुनवाई उपयुक्त बेंच में होनी चाहिए। इतिहासकारों के मुताबिक, पहले राजा-महाराजा अपने स्केच बनवाने के शौकीन हुआ करते थे। आगरा और मथुरा के कलाकार भी खास तौर पर उन्हीं के चित्र बनाते थे। लेकिन रानी झांसी के इस चित्र पर यहां के कलाकारों और लोगों को भी आपत्ति है।
यह वेबसाइट www.vishalindiantvchainal.blogspot.com भारत के 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगाँठ पर महान शहीदों को सादर समर्पित है। राष्ट्र भाषा हिंदी में बनी इस वेबसाइट का उद्देश्य इस महान आंदोलन के बारे में देश व विदेशों में, अलग-अलग भाषाओ में बिखरी तथ्यपूर्ण जानकारी, चित्र, कविताएँ इत्यादि को आधुनिक तकनीकी के माध्यम से एक जगह पर एकत्रित करना है। इस वेबसाइट के माध्यम से 1857 की क्रांति के विषय पर एकत्रित यह जानकारी देश-विदेश में किसी भी स्थान पर उपलब्ध हो सकेगी तथा आने वाली पीढ़ियों को राष्ट्र भक्ति का यह संदेश दे सकेगी कि 1947 में वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले भी असंख्य देशभक्त्तों ने अपना बलिदान दिया था, तथा भारत के स्वतंत्रता के संघर्ष की नीव 1857 में ही पड़ गयी थी।
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झांसी की रानी के हुक्के पर लड़ाईआगरा, जागरण संवाददाता। खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी..।' हर भारतवासी के मन-मस्तिष्क को कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ये ऐतिहासिक पंक्तियां आज भी उद्वेलित कर देती हैं। लेकिन एक कलाकार की कल्पनाओं ने इतिहास से अलग नया विवाद खड़ा कर दिया है। विवाद का कारण एक स्केच है, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई को हुक्का पीते हुए दर्शाया गया है।पढ़ें:
सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती मंगलवार को है। पर, आगरा की भूमिका सिर्फ उनकी प्रतिमा और चित्रों पर माल्यार्पण करने तक सीमित नहीं है। रानी का पराक्रम और घटनाक्रम देखने वाली जुबां भले ही खामोश हो चुकी हैं, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटते ही मुहब्बत की नगरी से वीरांगना के तार मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ऐसे में एक ताजा घटनाक्रम ने आगरा के इतिहासविद् और प्रबुद्धजनों को थोड़ा बेचैन कर दिया है। मुंबई हाईकोर्ट में विवेक तांबे नाम के एक विधि छात्र ने कुछ माह पहले याचिका दायर की थी। खुद को झांसी की रानी के चचेरे भाई अनंत तांबे की पांचवीं पीढ़ी का बताने वाले विवेक ने याचिका में रानी लक्ष्मीबाई के कुलनाम सहित कई बिंदुओं को याचिका में शामिल किया है, लेकिन बखेड़ा मचा है एक तस्वीर पर।
विवेक ने एक किताब में छपे रानी लक्ष्मीबाई के स्केच पर आपत्ति जताई है। इसमें वीरांगना को हुक्का पीते हुए दिखाया गया है। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह स्वतंत्रता संग्राम की तलवार उठाने वाली थीं, हुक्का-पान जैसे काल्पनिक चित्र रानी की छवि को खराब करने वाले हैं। यह उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते। हालांकि मुंबई हाईकोर्ट के जज वीएम कनाडे और जस्टिस केआर श्रीराम ने सुनवाई करते हुए कह दिया कि यह याचिका पीआइएल की तरह है और इसकी सुनवाई उपयुक्त बेंच में होनी चाहिए। इतिहासकारों के मुताबिक, पहले राजा-महाराजा अपने स्केच बनवाने के शौकीन हुआ करते थे। आगरा और मथुरा के कलाकार भी खास तौर पर उन्हीं के चित्र बनाते थे। लेकिन रानी झांसी के इस चित्र पर यहां के कलाकारों और लोगों को भी आपत्ति है।
१८५७ का १००० टन सोने का खजाना
दौंड़ियाखेड़ा।। किसी को सपने में कुछ चमत्कारिक या भविष्य दिखने या फिर देवी-देवताओं के प्रकट होकर कुछ कहने की कहानियां नई नहीं हैं। अब इन सपनों पर कितने लोग और कैसे भरोसा करते हैं, यह अलग बात है। लेकिन यूपी के उन्नाव जिले में एक साधु के सपने पर सरकार ने भरोसा कर लिया है। यह सपना है जमीन में दबे एक हजार टन से ज्यादा के सोने का। अब तो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने में सचाई दिख रही है।
उन्नाव जिले के गौतम स्टेट के राजा रावराम बक्श सिंह के छिपे खजाने को निकालने के लिए अगले हफ्ते से खुदाई शुरू हो जाएगी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दौंड़ियाखेड़ा गांव स्थिति टीले में दबे महल के खंडहरों में मार्किंग कर ली है। विशेषज्ञों को दस जगह सोने से भरा खजाना होने की जानकारी मिली है। आर्कियोलॉजी विभाग की कानपुर की टीम शनिवार को मौके पर पहुंच जाएगी।
सुनहरा सपना
शोभन सरकार नाम के इस साधु का कहना है कि उसके सपने में राजा रावराम बक्स सिंह आए थे। सपने में उन्होंने शोभन को बताया कि दौंडियाखेड़ा में उनके महल का जो अवशेष है, उसके नीचे एक हजार टन सोना दबा हुआ है। राजा ने सपने में शोभन से कहा कि वह खुदाई करके इस सोने को निकाल ले। गौरतलब है कि राजा रावराम बक्स सिंह ब्रिटिश शासन से लड़ते हुए 1857 में शहीद हो गए थे।
सरकार करेगी खुदाई
इस सपने के बाद शोभन ने स्थानीय प्रशासन, राज्य और केंद्र सरकार को इस बारे में जानकारी दी। शुरू में सभी ने इसे मजाक ही समझा, लेकिन बात किसी तरह केंद्रीय मंत्री चरण दास महंत तक पहुंची और उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। इसके बाद उन्होंने महल वाली जगह का दौरा किया और इस बारे में प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री और अन्य संबंधित विभागों को लेटर लिखा।
अब आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने की सचाई के संकेत मिल रहे हैं। एएसआई के मनोज कुमार ने बताया कि उनकी टीम ने मौके पर जाकर सर्वे कर लिया है। शनिवार से उनकी टीम इलाके के प्रिजर्वेशन के लिए पहुंच रही है। इससे पहले टीम ने 3 अक्टूबर को महल के खंडहरों में जाकर दस जगहों पर मार्किंग की थी। विशेषज्ञों ने जांच में पाया कि जिन दस जगहों पर मार्किंग की गई है वहां पर दस से बीस मीटर खुदाई करने पर हाइली कंडक्टिव मैटेरियल (सोना या चांदी) मिलने की संभावना है। विशेषज्ञों के मुताबिक जो मैग्नेटिव फ्रीक्वेंसी उनको इस इलाके में मिली है वह एक हजार टन से भी ज्यादा के मैटेरियल के होने की है।
एएसआई ने खुदाई के लिए मांगी सुरक्षा
लखनऊ में शुक्रवार को इस दबे हुए खजाने को लेकर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों की बैठक हुई। बैठक में तय हुआ कि जहां पर खुदाई होनी हें वहां पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाएं। सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए जाएं। खुदाई के दौरान कुछ अवशेष भी मिल सकते हैं। एएसआई के अधिकारियों ने उन्नाव जिला सुरक्षा का बंदोबस्त करने को कह दिया है।
दिक्कतें भी हैं
जिस इलाके में खजाने की खुदाई होनी है वह गंगा का किनारा है। टीम का अनुमान है कि यहां पर भू जल स्तर 7-8 फुट पर होगा। ऐसे में खुदाई के दौरान दिक्कत हो सकती है। हालांकि मार्क की गई जगहों में कुछ नदी से दूर भी हैं। लेकिन ज्यादातर इलाके गंगा के किनारे से महज चंद मीटर की दूरी पर ही है।
दौंड़ियाखेड़ा।। किसी को सपने में कुछ चमत्कारिक या भविष्य दिखने या फिर देवी-देवताओं के प्रकट होकर कुछ कहने की कहानियां नई नहीं हैं। अब इन सपनों पर कितने लोग और कैसे भरोसा करते हैं, यह अलग बात है। लेकिन यूपी के उन्नाव जिले में एक साधु के सपने पर सरकार ने भरोसा कर लिया है। यह सपना है जमीन में दबे एक हजार टन से ज्यादा के सोने का। अब तो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने में सचाई दिख रही है।
उन्नाव जिले के गौतम स्टेट के राजा रावराम बक्श सिंह के छिपे खजाने को निकालने के लिए अगले हफ्ते से खुदाई शुरू हो जाएगी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दौंड़ियाखेड़ा गांव स्थिति टीले में दबे महल के खंडहरों में मार्किंग कर ली है। विशेषज्ञों को दस जगह सोने से भरा खजाना होने की जानकारी मिली है। आर्कियोलॉजी विभाग की कानपुर की टीम शनिवार को मौके पर पहुंच जाएगी।
सुनहरा सपना
शोभन सरकार नाम के इस साधु का कहना है कि उसके सपने में राजा रावराम बक्स सिंह आए थे। सपने में उन्होंने शोभन को बताया कि दौंडियाखेड़ा में उनके महल का जो अवशेष है, उसके नीचे एक हजार टन सोना दबा हुआ है। राजा ने सपने में शोभन से कहा कि वह खुदाई करके इस सोने को निकाल ले। गौरतलब है कि राजा रावराम बक्स सिंह ब्रिटिश शासन से लड़ते हुए 1857 में शहीद हो गए थे।
सरकार करेगी खुदाई
इस सपने के बाद शोभन ने स्थानीय प्रशासन, राज्य और केंद्र सरकार को इस बारे में जानकारी दी। शुरू में सभी ने इसे मजाक ही समझा, लेकिन बात किसी तरह केंद्रीय मंत्री चरण दास महंत तक पहुंची और उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। इसके बाद उन्होंने महल वाली जगह का दौरा किया और इस बारे में प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री और अन्य संबंधित विभागों को लेटर लिखा।
अब आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने की सचाई के संकेत मिल रहे हैं। एएसआई के मनोज कुमार ने बताया कि उनकी टीम ने मौके पर जाकर सर्वे कर लिया है। शनिवार से उनकी टीम इलाके के प्रिजर्वेशन के लिए पहुंच रही है। इससे पहले टीम ने 3 अक्टूबर को महल के खंडहरों में जाकर दस जगहों पर मार्किंग की थी। विशेषज्ञों ने जांच में पाया कि जिन दस जगहों पर मार्किंग की गई है वहां पर दस से बीस मीटर खुदाई करने पर हाइली कंडक्टिव मैटेरियल (सोना या चांदी) मिलने की संभावना है। विशेषज्ञों के मुताबिक जो मैग्नेटिव फ्रीक्वेंसी उनको इस इलाके में मिली है वह एक हजार टन से भी ज्यादा के मैटेरियल के होने की है।
एएसआई ने खुदाई के लिए मांगी सुरक्षा
लखनऊ में शुक्रवार को इस दबे हुए खजाने को लेकर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों की बैठक हुई। बैठक में तय हुआ कि जहां पर खुदाई होनी हें वहां पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाएं। सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए जाएं। खुदाई के दौरान कुछ अवशेष भी मिल सकते हैं। एएसआई के अधिकारियों ने उन्नाव जिला सुरक्षा का बंदोबस्त करने को कह दिया है।
दिक्कतें भी हैं
जिस इलाके में खजाने की खुदाई होनी है वह गंगा का किनारा है। टीम का अनुमान है कि यहां पर भू जल स्तर 7-8 फुट पर होगा। ऐसे में खुदाई के दौरान दिक्कत हो सकती है। हालांकि मार्क की गई जगहों में कुछ नदी से दूर भी हैं। लेकिन ज्यादातर इलाके गंगा के किनारे से महज चंद मीटर की दूरी पर ही है।
'मारो फिरंगियों को' के नारे से गूंज उठा था ये शहर
धर्मेद्र चंदेल, ग्रेटर नोएडा। 1857 दिन रविवार। मेरठ में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड कैवेलरी, 11वीं और 12वीं इन्फेंट्री के ब्रिटिश जवान पारंपरिक चर्च परेड में हिस्सा लेने वाले थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए परेड आधे घंटे की देरी से शुरू होनी थी। इस परेड में अंग्रेज सैनिक निहत्थे हुआ करते थे।
राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर 'मारो फिरंगियों को' के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया। महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं
एक विभाजन रेखा थी यह क्रांति
1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर काम करने वाले मेरठ निवासी ललित दूबे बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन्होंने बताया कि तब मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू का कहना है कि यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक। दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।
राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर 'मारो फिरंगियों को' के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया। महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं
एक विभाजन रेखा थी यह क्रांति
1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर काम करने वाले मेरठ निवासी ललित दूबे बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन्होंने बताया कि तब मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू का कहना है कि यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक। दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।
ऊंट पर लाकर नवाबों को शहर में किया कैद
जमीर सिद्दीकी, कानपुर। 1857 के गदर में 10 मई को मेरठ के ज्वाला की आग जब कानपुर पहुंची तो कई नवाब यहां से लखनऊ चले गए। जिन्हें बाद में अंग्रेज गिरफ्तार करके ऊंट पर बिठाकर कानपुर ले आए और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। 1अक्टूबर 1896 में सैयद कमालुद्दीन हैदर ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-अवध में लिखा है कि नवाब दूल्हा हाता पटकापुर में एक मेम मारी गईं। इस जुर्म में अंग्रेजों ने नवाब दूल्हा और उनके भांजे नवाब मौतमुद्दौला को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद नवाब निजामुद्दौला, नवाब बाकर अली खां लखनऊ चले गए। अंग्रेजों ने नवाबों को लखनऊ में गिरफ्तार किया और उन्हें ऊंट से कानपुर लाकर अदालत के सामने पेश किया। नवाबों के घर का सारा सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। इस सदमे में नवाब बाकर खां के बेटे की मौत हो गई।
हैवलाक ने 3000 लोगों को फांसी दी
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार डॉ. इशरत अली सिद्दीकी ने बताया कि इलाहाबाद से कत्लेआम करते हुए जनरल हैवलाक की फौज बकरमंडी स्थित सूबेदार के तालाब पर पहुंची तो अहमद अली वकील और कुछ महाजनों ने जनरल का स्वागत किया। लेकिन अंदर ही अंदर वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते रहे। उन्होंने बताया कि जनरल हैवलाक की फौज ने 3000 लोगों को फांसी दी। बड़ी करबला नवाबगंज में सबील के लिए लगाए गए अहमद अली वकील के कारखास राना को अंग्रेजों ने पकड़ लिया तो राना ने पूछा कि मेरा कसूर क्या है। जनरल हैवलाक ने कहा कि तुम्हें तीसरे दिन फांसी देंगे। तुम्हारी कौम हमारे बेगुनाह लोगों को मार रही है।
हैवलाक ने 3000 लोगों को फांसी दी
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार डॉ. इशरत अली सिद्दीकी ने बताया कि इलाहाबाद से कत्लेआम करते हुए जनरल हैवलाक की फौज बकरमंडी स्थित सूबेदार के तालाब पर पहुंची तो अहमद अली वकील और कुछ महाजनों ने जनरल का स्वागत किया। लेकिन अंदर ही अंदर वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते रहे। उन्होंने बताया कि जनरल हैवलाक की फौज ने 3000 लोगों को फांसी दी। बड़ी करबला नवाबगंज में सबील के लिए लगाए गए अहमद अली वकील के कारखास राना को अंग्रेजों ने पकड़ लिया तो राना ने पूछा कि मेरा कसूर क्या है। जनरल हैवलाक ने कहा कि तुम्हें तीसरे दिन फांसी देंगे। तुम्हारी कौम हमारे बेगुनाह लोगों को मार रही है।
दरियागंज ने भी अंग्रेजों से लिया था लोहाजागरण संवाददाता, नई दिल्ली। 1857 के मुगलिया सल्तनत दिल्ली में 10 मई के बाद हालत पूरी तरह से बेकाबू हो गए थे। बागी सैनिकों और आम जन का आक्रोश चरम पर था। यमुना पार करके दिल्ली पहुंचे विद्रोही सैनिकों की टुकड़ियों ने दरियागंज से शहर में प्रवेश करना शुरू कर दिया था। यमुना नदी (दरिया) के करीब होने कारण इस जगह का नाम दरियागंज पड़ा। दरियागंज से हथियारों से लैस बागी सैनिक नारे लगाते जा रहे थे। फौजियों को आता देख पहले तो अंग्रेज छिप गए लेकिन कुछ ने मुकाबला किया। दरिया गंज की गलियों और भवनों में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से लोग घायल हुए और मारे गए। इस दौरान अंग्रेजों के घरों में आग लगा दी गई। कुछ अंग्रेज भागकर बादशाह के पास पहुंचे और पनाह कीे गुहार की। लेकिन दिल्ली के हालात बेकाबू थे। बागी सैनिकों और आम जन का गुस्सा चरम पर था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि अंग्रेजों के नौकर भी उन दिनों विद्रोह में शामिल हुए थे। लाल किले के दक्षिण में बसाई गई दरिया गंज पहली बस्ती थी। यहां पर आम लोग नहीं रहते थे। यह जगह धनी वर्ग के लिए थी यहां नवाब, सूबेदार और पैसे वाले रहा करते थे। किले के समीप इस बस्ती में शानदार कोठियां और बंगले बने थे। कुछ के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं। 1803 में जब अंग्रेज अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंचे तो किले के पास ही नदी के किनारे अपना डेरा जमाया और इसे छावनी का रूप दिया। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि दरियागंज दिल्ली में अंग्रेजों की सबसे पहली छावनी थी। और शायद इसीलिए बागियों ने इसके महत्व को समझ कर इसे निशाना भी बनाया। इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि शाहजहांनाबाद की दीवार से दरियागंज लगा था। इसका नाम दरियागंज कब पड़ा इसकी बारे में जानकारी नहीं है लेकिन यह जगह भी 1857 में प्रभावित थी। 1857 की क्रांति पर पुस्तकों का संपादन करने वाले मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का कहना है कि उस दौर में दरियागंज में आतंक का माहौल था। अंग्रेजों द्वारा आसपास के इलाके से मुस्लिम आबादी हटा दी गई थी। अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट,तुर्कमान गेट आदि जगहों से भी अंग्रेजों ने मुस्लिम बस्तियों को उजाड़ दिया था। www.vishalindiantvchainal.blogspot.com |
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